भारतीय मानस को चाहिए नई पाठशाला
प्रतीकात्मक फोटो |
पहला कारण; अभी हाल के घटनाक्रम को देखें तो यह बात आपको भी सही जान पड़ेगी; अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा व्हाइट हाउस से कहते हैं कि, उन्हें डर लगता है भारत से, उसकी तरक्की से; कहीं वह तरक्की में आगे न निकल जाए। भारतीय मानस की प्रकृति निरा सपाट रही है। हमें अपनी लकीर बढ़ाने में यकीन भी है, रुचि भी है और भरोसा भी। पर दूसरे की लकीर को छोटा करना हमारी प्रकृति, संस्कार और व्यवहार का हिस्सा नहीं है। अमेरिका जैसा विकसित देश अपना पैसा दूसरे देश जाने देने से रोकना चाहता है, इसलिए दुनिया के कई देशों समेत भारत में अमेरिकी कंपनियों के कॉल सेंटरों पर खतरा मंडराने लगा है। इस संबंध में अमेरिकी संसद में बिल पास कराने की तैयारी भी जारी है। भारतीय जीडीपी में बीपीओ सेक्टर का हिस्सा करीब 2 फीसदी है। ऐसे में साफ तौर पर दिखता है कि वे अपने देश का मामूली सा 2 फीसदी पैसा या आर्थिक लाभ भी दूसरे देश को नहीं देना चाहते। इसके उलट भारतीय मानस ऐसा कुछ भी करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। इसलिए नई पाठशाला की जरूरत है।
तीसरा कारण; आतंकवाद। पड़ोसी देश आतंकवाद फैलाएं किसी को कोई दिक्कत नहीं। न दुनिया के 'दादा' को और न 'दादा' बनने की मंशा रखने वालों को। 'दादा' बनने की मंशा रखने वाले तो और दो कदम आगे सीनाजोरी करने पर उतारू। आपकी सीमा में आएंगे, खाएंगे-पिएंगे और आपको ही धमकाकर चले जाएंगे। जी हां, चीन और पाकिस्तान की करतूतों से आप सभी वाकिफ हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के सलाहकार कहते हैं कि हर देश के साथ संबंधों को लेकर उनकी अपनी अलग नीति होती है। साफ है कि जिससे जितना और जैसा फायदा, उससे उतना और वैसा ही व्यवहार। पाकिस्तान को अमेरिका या चीन से कितनी सहायता राशि या असलहा मिलता है यह बताने की भी जरूरत तो नहीं है। खैर, फिर भी कहना चाहूंगा कि पाकिस्तान की सरजमीं पर पनपते आतंकवाद को सभी जानते हैं। दुनिया का 'दादा' भी वाकिफ है, पर इसके खात्मे के लिए सिवाए घुड़की देने के और कुछ भी नहीं करता। दूसरी तरफ जब अपने ऊपर आतंकवादी हमला होता है तो वही दुनिया का 'दादा' ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान की सरजमीं पर जाकर मारता है। यही नहीं इसके लिए वैश्विक मंच से कोई इजाजत नहीं, कोई वार्ता नहीं, कुछ नहीं सिर्फ कार्रवाई होती है। क्या किसी अन्य देश में है इतना बूता? नहीं! क्योंकि आप पीछे हैं, आपको पीछे रखा गया है। इसलिए हमें यानी भारतीय मानस को नई पाठशाला की जरूरत है।
चौथा कारण; राजनीति। भारतीय राजनीति लोकतांत्रिक व्यवस्था पर चलती है। लेकिन लोकतंत्र में यहां सबको अपने विचार या यूं कहें नए और विकसित विचारों के बजाए स्वार्थपरक रोटियां सेंकना ज्यादा मुफीद मालूम होता है। जब जैसी स्थिति हो उसके मुताबिक यू-टर्न मार लो वाली बात है। केंद्रीय मंत्री (राजनाथ सिंह) ने बयान दिया, बवाल उठा तो तीन बयान दे दिए। सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने का आदेश दिया तो कानून में संशोधन के लिए हर राजनेता, हर दल तैयार हो गया। इस सब में आम आदमी के भले की कोई बात कहीं नहीं है। हमारे राजनेताओं को मैं कहना चाहूंगा कि आप सिर्फ आम आदमी के भले के काम करें, आपकी पार्टी कभी चुनाव नहीं हारेगी। पर यह छोटी सी बात लगता है नेताओं के दिमाग में उतरती नहीं। इसलिए नई पाठशाला की जरूरत है।
पांचवा कारण; भारतीय उच्चतम न्यायालय समय-समय पर निर्देशित करता रहता है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ समय से कई अहम फैसले दिए हैं, जैसे टूजी घोटाला, कोल ब्लॉक घोटाला, मैच फिक्सिंग, रेप केस, यौन उत्पीड़न, सीबीआई का 'तोता' पर टिप्पणी आदि-आदि। इस सबके बावजूद हमारे यहां एक बात की कमी है और वो है इन फैसलों पर अमल करने की। यही नहीं जिन मामलों पर फैसला नहीं आया है उनमें चल रही जांच पर निगरानी की। मान लीजिए यदि कोर्ट अपने समक्ष आए मामले की जांच की निगरानी करने लगे या स्वयं अपने जांच अधिकारी नियुक्त करे जो पूरी तरह से केवल कोर्ट के प्रति जवाबदेह हों। सोचिए तब क्या होगा। अधिकांश मामले सालों तक नहीं लटके रहेंगे। कई मामले कुछ सालों में तो कई चंद दिनों में ही निपट जाएंगे। यही नहीं जांच अधिकारी के किसी भी व्यक्ति या संस्था से प्रभावित होने की संभावना बेहद ही कम हो जाएगी। सुप्रीम कोर्ट ने राडिया टेप रिकॉर्डिंग मामले की सुनवाई में कहा है कि जांच अधिकारियों ने आरोप पत्र में और अपनी जांच में केवल टूजी मामले से जुड़ी बातचीत पर ही फोकस किया है, जबकि टेप की रिकॉर्डिंग सुनने पर पता चलता है कि कई अन्य मामले भी उजागर हो सकते थे। क्योंकि रिकॉर्ड की गई बातचीत सिर्फ टूजी तक सीमित नहीं है, जिसके लिए तमाम लॉबिंग की गई। ऐसे में कहीं न कहीं लगता है कि हम इन तमाम बातों से कुछ नहीं सीख रहे हैं। इसलिए नई पाठशाला की जरूरत है।
अंतत: यही कहना चाहूंगा कि यदि हम भारतीय वाकई अपने देश को आगे ले जाना चाहते हैं, तो हमें अलग नजरिए से सोचना होगा। देश की सीमाओं से जुड़े मसलों और विदेशी ताकतों से लडऩे के लिए सख्त रुख अपनाना होगा। अब समय समझाइश का नहीं रहा। जिन क्षेत्रों में आज वे (विदेशी) शोध कर रहे हैं, उनके बारे में हमने सोचा भी नहीं है। पर हमें सोचना होगा और सोचकर उस पर अमल करते हुए आगे बढऩा होगा। ऐसा नहीं है कि हमने कोई तरक्की की ही नहीं है, पर जो भी तरक्की की है वह अन्य के मुकाबले नाकाफी है। इसलिए भारतीय मानस को नई पाठशाला में नए विचारों और नए पाठ पढ़ने पढऩे की जरूरत है।
- योगेश साहू
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