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लाभ का पद

प्रतीकात्मक फोटो 
एक युवक डिग्रियां हासिल करने के बाद रोजगार के लिए संघर्ष करने लगा। चाहत थी कि कोई पद पा ले, लेकिन पद पाना कोई पिल्लों का खेल नहीं है। एडिय़ां घिस जाती हैं। युवक जोशीला था। सारे हाथ-पांव मारने के बाद उसे भगवान की याद आई। विचार करने लगा- ऐसे कौन से भगवान हैं, जो पद दिलवा सकते हैं। पद भी ऐसा जो लाभ का हो। ख्याल आया कि श्री विष्णु ही सृष्टि के कर्ता-धर्ता हैं, वे ही कुछ कर सकते हैं। तो भई लग गए तपस्या में। विष्णु जी की तपस्या भी कोई आसान नहीं थी। युवक की उम्र का यही कोई 61 वां वर्ष रहा होगा कि भगवान प्रसन्न हो गए। युवक तपस्या में लीन था। दीया फडफ़ड़ाया। अचनाक भगवान प्रकट हुए।

बोले- मांगो वत्स, क्या चाहते हो? मैं तुमसे प्रसन्न हूं।
युवक बोला-अब क्या मांगूं, जब आना था, तब तो आए नहीं, अब आकर बड़ा एहसान पटका है।
विष्णु जी रुष्ट होकर बोले- तो अब तक तपस्या क्यों कर रहा था?
युवक बोला- वह तो मैंने सोचा कि देर आयद, दुरुस्त आयद।
विष्णु जी बोले- चल अब आ गया हूं तो कुछ देकर ही जाऊंगा, मांग क्या मांगता है?
युवक- मांगना क्या है, कोई भी पद दे दो, जो लाभ का हो।
विष्णु जी- लाभ का पद ही क्यों चाहिए तुझे?
युवक- अब बुढ़ापा आ चला है, ज्यादा भागदौड़ नहीं कर सकता। बैठे-बैठे खाना चाहता हूं।
विष्णु जी- तो बेटा लाभ का पद कहां मिलेगा तुझे, धरती पर तो तेरी उम्र ज्यादा हो गई है। व्यवस्था के हिसाब से तुझे 25-२6 साल की उम्र में कोई पद मिल जाता तो ठीक था। अब तो रिटायरमेंट की उम्र है।
युवक- तो मैं क्या करूं, इसमें मेरा दोष थोड़े ही है, आप कुछ जल्दी प्रसन्न नहीं हो सकते थे?
विष्णु जी- वत्स मैं भी तो सांसारिक रचना के नियमों से बंधा हुआ हूं। आसानी से प्रसन्न होने लगूं तो किसी भी एेरे-गैरे नत्थू खैरे के सामने खड़ा होना पड़ेगा। आखिर मेरी भी इज्जत है, रुतबा है। भगवान ऐसे ही थोड़े न बन गया हूं।
युवक- हां-हां ठीक है, अब क्या पूरा भाषण ही पिला दोगे। मुझे तो बस एक लाभ का पद दे दो।
विष्णु जी- बेटा, तू खुद जल्दी से बता दे तुझे क्या चाहिए, ताकि मैं वापस जाकर सो सकूं, शेषनाग भी इंतजार कर रहा होगा।
युवक- हां, एक हम ही तो हैं फुरसतिये, कोई काम नहीं। अच्छा आप ही बताओ कि पूरे संसार में सबसे ज्यादा लाभ का पद कौन-सा है।
विष्णु जी- बेटा तू ये लाभ के पद के पीछे क्यों पड़ गया है? कुछ और मांग ले।
युवक- भगवान होकर भी नहीं जानते कि जिसके पास लाभ का पद होता है उसे काम करने की जरूरत नहीं होती। आराम की जिंदगी कौन नहीं चाहता।

समाज और दुनिया में प्रतिष्ठा मिलती है सो अलग। अरे बड़े-बड़े तुर्रमखां भी सलाम ठोकते हैं। उनसे कोई पंगा नहीं लेता। तो बताओ दुनिया में सबसे ज्यादा लाभ का पद कौन सा है?
विष्णु जी सोचकर बोले- वैसे देखा जाए तो दुनिया में सबसे ज्यादा लाभ का पद इंद्र का है।
युवक- हां तो बस वही दे दो।
विष्णु जी- फिर इंद्र का क्या होगा?
युवक- मैं उन्हें अपना सहायक रख लूंगा।
विष्णु जी- ये तो ठीक है, पर!
युवक- पर क्या?
विष्णु जी- पर ये कि वे कोई छोटे व्यक्ति तो हैं नहीं। दूसरी बात एकदम से उन्हें सेवक जैसा काम भी नहीं दिया जा सकता। भई, अभी वे जिस पद पर हैं उसकी गरिमा का भी तो ख्याल रखना पड़ेगा? फिर लोग क्या कहेंगे?
युवक- ठीक है तो मैं उन्हें अपने बगल में जगह दे दूंगा, बैठे रहेंगे। इससे मुझे क्या फर्क पडऩा है?
विष्णु जी- हां, यह ठीक रहेगा, तथास्तु।

युवक इंद्र के पद पर आसीन हो गया। चूंकि वह इंद्र हो गया था इसलिए धरती छोडऩी पड़ी। स्वर्ग में बड़ी शान से इंद्रासन पर बैठकर राहत महसूस की।

इसी तरह वक्त गुजरता गया और वह सुर-सुरा में खोता चला गया। दिन भर बढिय़ा खाना-पीना, सोना और नाच देखना। पहले वाले इंद्र को उसके बगल में जगह मिल गई और वह स्वर्ग का पूरा कामकाज देखने लगा, लेकिन एक दिन अचानक एक घटना घटी। यमराज नहीं रहे। यमराज का पद खाली हो गया। खबर सुनते ही युवक का मन डोल गया। सोचा एक और पद मिल जाए तो दुनिया मुट्ठी में। अत: वह यमराज के पद पर आसीन होने लगा। किसी ने कोई आवाज नहीं उठाई। आखिर वह एक प्रभावशाली पद पर जो था।

खैर समय बीता और वह दिन आ गया, जब यमलोक व स्वर्ग लोक के संयुक्त सदन की बैठक हुई। ब्रह्मा जी अध्यक्ष थे। संयुक्त बैठक पूरे एक साल चलती थी। सदन में एक महत्वाकांक्षी यमदूत ने इंद्र के पद पर नहीं, बल्कि लाभ के पद पर होने का मुद्दा उठा दिया। बहस शुरू हो गई। तमाम तर्क दिए गए कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए दो पद ग्रहण करने पड़े थे। ऐसा था, वैसा था। पर मुद्दा ज्वलंत था। ब्रह्मा जी के प्रशासनिक नियमों के अनुरूप एक व्यक्ति किसी एक ही पद पर रह सकता था। नियम का उल्लंघन हुआ था। अत: जगत्पति श्री शंकर जी ने युवक को दंड स्वरूप श्राप देकर इंद्र के पद से हटाकर वापस धरती पर भेज दिया। अब युवक गर्भ में इंसानी जामा पहन रहा है, ताकि फिर से संसार में कोई पद पा सके। जहां स्वर्ग के वासी युवक को त्यागी मान रहे थे, वहीं यमलोक के वासी लालची। धरती के लोगों में कोई पुख्ता धारणा नहीं थी। होती भी कैसे, वे स्वर्ग-नरक की सच्चाइयों से मरने के बाद ही रू-ब-रू हो पाते हैं। क्या करें आम इंसान जो हैं।
                                                                                                                          योगेश साहू

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